Tuesday, 27 March 2018

अहिल्याबाई होल्कर योगदान

                                             
                     अहिल्याबाई होल्कर                                                  अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं। उनका कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था। फिर भी उन्होंने जो कुछ किया, उससे आश्चर्य होता है।  जन्म इनका सन् 1725 में हुआ था दस-बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ। उनतीस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गईं। पति का स्वभाव चंचल और उग्र था। वह सब उन्होंने सहा। फिर जब बयालीस-तैंतालीस वर्ष की थीं, पुत्र मालेराव का देहांत हो गया। जब अहिल्याबाई की आयु बासठ वर्ष के लगभग थी, दौहित्र नत्थू चल बसा। चार वर्ष पीछे दामाद यशवंतराव फणसे रहा और इनकी पुत्री मुक्ताबाई सती हो गई। दूर के संबंधी तुकोजीराव के पुत्र मल्हारराव पर उनका स्नेह था; सोचती थीं कि आगे चलकर यही शासन, व्यवस्थान्याय औऱ प्रजारंजन की डोर सँभालेगा; पर वह अंत-अंत तक       उन्हें दुःख देता रहा।           
                                                                                  
              अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मंदिर बनवाए, घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया, मार्ग बनवाए-सुधरवाए, भूखों के लिए अन्नसत्र (अन्यक्षेत्र) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की। और, आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती रहीं-मरते दम तक। ये उसी परंपरा में थीं जिसमें उनके समकालीन पूना के न्यायाधीश रामशास्त्री थे और उनके पीछे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हुई। अपने जीवनकाल में ही इन्हें जनता देवीसमझने और कहने लगी थी। इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों देखा ही कहाँ था। जब चारों ओर गड़बड़ मची हुई थी। शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहे थे। प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान मजदूर-अत्यंत हीन अवस्था में सिसक रहे थे। उनका एकमात्र सहारा-धर्म-अंधविश्वासों, भय त्रासों और रूढि़यों की जकड़ में कसा जा रहा था। न्याय में शक्ति रही थी, विश्वास। ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई ने जो कुछ किया-और बहुत किया।-वह चिरस्मरणीय है।
                 इंदौर में प्रति वर्ष भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी के दिन अहिल्योत्सव होता चला आता है।अहिल्याबाई जब 6 महीने के लिये पूरे भारत की यात्रा पर गई तो ग्राम उबदी के पास स्थित कस्बे अकावल्या के पाटीदार को राजकाज सौंप गई, जो हमेशा वहाँ जाया करते थे। उनके राज्य संचालन से प्रसन्न होकर अहिल्याबाई ने आधा राज्य देेने को कहा परन्तु उन्होंने सिर्फ यह मांगा कि महेश्वर में मेरे समाज लोग यदि मुर्दो को जलाने आये तो कपड़ो समेत जलायॆं।

                उनके मंदिर-निर्माण और अन्य धर्म-कार्यों के महत्त्व के विषय में मतभेद है। इन कार्यों में अहिल्याबाई ने अंधाधुंध खर्च किया और सेना नए ढंग पर संगठित नहीं की। तुकोजी होलकर की सेना को उत्तरी अभियानों में अर्थसंकट सहना पड़ा, कहीं-कहीं यह आरोप भी है  इन मंदिरों को हिंदू धर्म की बाहरी चौंकियाँ बतलाया है। तुकोजीराव होलकर के पास बारह लाख रुपए थे जब वह अहिल्याबाई से रुपए की माँग पर माँग कर रहा था और संसार को दिखलाता था कि रुपए-पैसे से तंग हूँ। फिर इसमें अहिल्याबाई का दोष क्या था ? हिंदुओं के लिए धर्म की भावना सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति रही है; अहिल्याबाई ने उसी का उपयोग किया। तत्कालीन अंधविश्वासों और रुढ़ियों का वर्णन उपन्यास में आया है। इनमें से एक विश्वास था मांधता के निकट नर्मदा तीर स्थित खडी पहाड़ी से कूदकर मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्राणत्याग-आत्महत्या कर डालना।                                                                                                                                                                                                                                             अहिल्याबाई के संबंध में दो प्रकार की विचारधाराएँ रही हैं। एक में उनको देवी के अवतार की पदवी दी गई है, दूसरी में उनके अति उत्कृष्ट गुणों के साथ अंधविश्वासों और रूढ़ियों के प्रति श्रद्धा को भी प्रकट किया है। वह अँधेरे में प्रकाश-किरण के समान थीं, जिसे अँधेरा बार-बार ग्रसने की चेष्टा करता रहा। अपने उत्कृष्ट विचारों एवं नैतिक आचरण के चलते ही समाज में उन्हें देवी का दर्जा मिला।                                                                                                                                                                                  

Monday, 26 March 2018

सिंधुताई सपकाल अनाथ बच्चो की माँ

                  सिंधुताई सपकाल अनाथ बच्चो की माँ                                  

             सिन्धुताई का जन्म १४ नवम्बर १९४७ महाराष्ट्र के वर्धा जिल्हे मे 'पिंपरी मेघे' गाँव मे हुआ। उनके पिताजी का नाम 'अभिमान साठे' है, जो कि एक चर्वाह (जानवरों को चरानेवाला) थे। क्योंकि वे घर मे नापसंद बच्ची (क्योंकि वे एक बेटी थी; बेटा नही) थी, इसिलिए उन्हे घर मे 'चिंधी'(कपड़े का फटा टुकड़ा) बुलाते थे। परन्तु उनके पिताजी सिन्धु को पढ़ाना चाहते थे, इसिलिए वे सिन्धु कि माँ के खिलाफ जाकर सिन्धु को पाठशाला भेजते थे।                      

                माँ का विरोध और घर कि आर्थिक परस्थितीयों की बजह से सिन्धु की शिक्षा मे बाधाएँ आती रही। आर्थिक परस्थिती, घर कि जिम्मेदारीयाँ और बालविवाह इन कारणों कि बजह से उन्हे पाठशाला छोड़नी पड़ी जब वे चौथी कक्षा कि परीक्षा उत्तीर्ण हुई। जब सिन्धुताई १० साल की थी तब उनकी शादी ३० वर्षीय 'श्रीहरी सपकाळ' से हुई। जब उनकी उम्र २० साल की थी तब वे ३ बच्चों कि माँ बनी थी। गाँववालों को उनकी मजदुरी के पैसे ना देनेवाले गाँव के मुखिया कि शिकायत सिन्धुताईने जिल्हा अधिकारी से की थी। अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए मुखियाने श्रीहरी (सिन्धुताई के पती) को सिन्धुताई को घर से बाहर निकालने के लिए प्रवृत्त किया जब वे ९ महिने कि पेट से थी। उसी रात उन्होने तबेले मे गाय-भैंसों के रहने की जगह एक बेटी को जन्म दिया। जब वे अपनी माँ के घर गयी तब उनकी माँ ने उन्हे घर मे रहने से इनकार कर दिया (उनके पिताजी का देहांत हुआ था वरना वे अवश्य अपनी बेटी को सहारा देते। 

                सिन्धुताई अपनी बेटी के साथ रेल्वे स्टेशन पे रहने लगी। पेट भरने के लिए भीक माँगती और रातको खुदको और बेटी को सुरक्शित रखने हेतू शमशान मे रहती। उनके इस संघर्षमय काल मे उन्होंने यह अनुभव किया कि देश मे कितने सारे अनाथ बच्चे है जिनको एक माँ की जरुरत है। तब से उन्होने निर्णय लिया कि जो भी अनाथ उनके पास आएगा वे उनकी माँ बनेंगी। उन्होने अपनी खुद कि बेटी को 'श्री दगडुशेठ हलवाई, पुणे, महाराष्ट्र' ट्र्स्ट मे गोद दे दिया ताकि वे सारे अनाथ बच्चोंकी माँ बन सके।                                                                                        
                 सिन्धुताईने अपना पुरा जीवन अनाथ बच्चों के लिए समर्पित किया है। इसिलिए उन्हे "माई" (माँ) कहा जाता है। उन्होने १०५० अनाथ बच्चों को गोद लिया है। उनके परिवार मे आज २०७ दामाद और ३६ बहूएँ है। १००० से भी ज्यादा पोते-पोतियाँ है। उनकी खुद की बेटी वकील है और उन्होने गोद लिए बहोत सारे बच्चे आज डाक्टर, अभियंता, वकील है और उनमे से बहोत सारे खुदका अनाथाश्रम भी चलाते हैं। सिन्धुताई को कुल २७३ राष्ट्रीय और आंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए है जिनमे "अहिल्याबाई होऴकर पुरस्कार है जो स्रियाँ और बच्चों के लिए काम करनेवाले समाजकर्ताओंको मिलता है महाराष्ट्र राज्य सरकार द्वारा। यह सारे पैसे वे अनाथाश्रम के लिए इस्तमाल करती है। उनके अनाथाश्रम पुणे, वर्धा, सासवड (महाराष्ट्र) मे स्थित है।

               २०१० साल मे सिन्धुताई के जीवन पर आधारित मराठी चित्रपट बनाया गया "मी सिन्धुताई सपकाळ", जो ५४ वे लंडन चित्रपट महोत्सव के लिए चुना गया थापती जब 80 साल के हो गये तब वे उनके साथ रहने के लिए आए। सिन्धुताई ने अपने पति को एक बेटे के रूप मे  स्वीकार किया ये कहते हुए कि अब वो सिर्फ एक माँ है। आज वे बडे गर्व के साथ बताती है कि वो (उनके पति) उनका सबसे बडा बेटा है। सिन्धुताई कविता भी लिखती है। और उनकी कविताओं मे जीवन का पूरा सार होता है। वे अपनी माँ के आभार प्रकट करति है क्योकि वे कहति है अगर उनकी माँ ने उनको   पति के घर से निकालने के बाद घर मे सहारा दिया होता तो आज वो इतने सारे बच्चोंकी माँ नहीं बन पाती.

Sunday, 25 March 2018

एक ऐसी लड़की जिसने लडकियों की शिक्षा के लिए सिने में गोली खायी

नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफजाई

एक ऐसी लड़की जिसने लडकियों की शिक्षा के लिए सिने में गोली खायी, वैसे तो ये लड़की रहनेवाली पाकिस्तान की, कहते है कीचड़ में भी कमल खिलता है. बस इस लड़की के साथ भी यही हुआ. इस लड़की का नाम मलाला युसुफजाई है  मलाला का  जन्म १२ जुलाई १९९७ को हुआ  उसकी पैदाइश पाकिस्तान के खैबर-पख्तनख्वा प्रान्त के स्वात जिले में स्थित मिंगोरा शहर की है. 
              मलाला तेरा साल की उम्र में ही तहरीक ए तालिबान सरकार के खिलाफ ब्लॉग के जरिए लोगो के दिलो में राज करने लगी और उनके लिए एक सुपर स्टार से कम नहीं थी. मलाला बच्चो के अधिकार प्राप्त कर हेतु सरकार से लडती रही लेकिन वहाके सरकार के ठेकेदारोको ए हजम नहीं हुआ और आखिर १४ साल के उम्र में उगरवादियो के गोली की शिकार हो गयी पर कह्ते है  "जाको राके साइया मार सके ना कोंई". मलाला ने ब्लॉग और मीडिया में तालिबान की ज्यादतियों के बारे में जब से लिखना शुरू किया तब से उसे कई बार धमकियां मिलीं।

              मलाला ने तालिबान के कट्टर फरमानों से जुड़ी दर्दनाक दास्तानों को महज ११ साल की उम्र में अपनी कलम के जरिए लोगों के सामने लाने का काम किया था। मलाला उन पीड़ित लड़कियों में से है जो तालिबान के फरमान के कारण लंबे समय तक स्कूल जाने से वंचित रहीं। तीन साल पहले स्वात घाटी में तालिबान ने लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंदी लगा दी थी। लड़कियों को टीवी कार्यक्रम देखने की भी मनाही थी।‍ स्वात घाटी में तालिबानियों का कब्‍जा था और स्‍कूल से लेकर कई चीजों पर पाबंदी थी। मलाला भी इसकी शिकार हुई। लेकिन अपनी डायरी के माध्‍यम से मलाला ने क्षेत्र के लोगों को न सिर्फ जागरुक किया बल्कि तालिबान के खिलाफ खड़ा भी किया।
         तालिबान ने साल २००७ में स्‍वात पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था। और इसे  लगातार कब्‍जे में रखा। तालिबानियों ने लड़कियों के स्‍कूल बंद कर दिए थे। कार में म्‍यूजिक से लेकर सड़क पर खेलने तक पर पाबंदी लगा दी गई थी. पाकिस्तान की न्यू नेशनल पीस प्राइजहासिल करने वाली 14 वर्षीय मलाला यूसुफजई ने तालिबान के फरमान के बावजूद लड़कियों को शिक्षित करने का अभियान चला रखा है। तालिबान आतंकी इसी बात से नाराज होकर उसे अपनी हिट लिस्‍ट में ले चुके थे। संगठन के प्रवक्ता के अनुसार,‘यह महिला पश्चिमी देशों के हितों के लिए काम कर रही हैं। इन्‍होंने स्वात इलाके में धर्मनिरपेक्ष सरकार का समर्थन किया था। इसी वजह से यह हमारी हिट लिस्ट में हैं। 
             अक्टूबर 2012 में, स्‍कूल से लौटते वक्‍त उस पर आतंकियों ने हमला किया जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गई. और उसे अस्पताल में जिंदगी और मौत से जुजना पड़ा. शायद उन लोगो की दुआएं उसके साथ थी. हमें इससे यही सबक लेना होगा के सच्चाई की कभी हार नहीं होती। 

Monday, 19 March 2018

India's first Women's School Teacher- Savitribai Jyotirao Phule

👩सावित्रीबाई (माँ ) ज्योतिराव फुले👩

सावित्रीबाई (माँ) ज्योतिराव फुले का जन्म महाराष्ट्र के सातारा जिले में खंडाला तालुका में सायगाव में ०३ जानेवारी १८३१ को हुआ. वह भारत की पहली महिला शिक्षिका थी और उन्होंने अपने  पति श्री ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ उन्होंने स्त्रियों के मौलिक अधिकार और सम्मान के लिए बहोत बड़ा संघर्ष किया. इस दौरान उन्हें काफी दिक्कतों का तथा अपमान का सामना करना पड़ा. 
       १८५२ में अछूत तथा निराधार बालिकाओ के लिए विद्यालय की स्थापना की, उनका कार्य जैसे अनाथ बच्चो को सहारा देना, विधवा महिलाओं का फिरसे विवाह होने के पक्ष में थी. उन्होंने स्त्री मुक्ति आन्दोलन का बड़ा जिम्मा उठाया था. सावित्री माँ का १५० साल पुराना कार्य सर्वस्पर्शी तथा गौरव पूर्ण है. १९ के दशक में चारो तरफ अज्ञान तथा अनाचार , विषमता और धर्म रुधियोका साम्राज्य था.पुरुष प्रधान समाजवादी व्यवस्था थी, स्त्री का जन्म अशुभ माना जाता था. स्त्री और पुरुष एक ही है तथा स्त्री का मन भी होता है, उसके पास दिल भी है उसके कुछ अपने विचार है इसे समाजवादियों द्वारा नाकारा गया. स्त्री ये अबला है, वो गुलाम है तथा दुसरो के आश्रय पलने वाली, एक चीज है ऐसे माना  जाता था. 
          हिन्दू धर्म  के इतिहास में जीतनी अवहेलना, अपमान, शोषण इन धर्म के ठेकेदारोने की है के इस दुनिया में कही भी नहीं हुआ होगा. स्त्री को विवश होना पड़ता था आत्महत्या के लिए, मरने के लिए और जो नहीं मरती थी उन्हें मार दिया जाता था और किसीको पता भी नहीं चलता था. सावित्रीमाँ के ज़माने में बालविवाह बड़े जोरो शोरो से किया जाता था क्यों की धर्म के ठेकेदारोने ऐसा जल बिछाया था के स्त्री को बचपन से ही तकलीफ, दर्द, छल की शुरुवात होती थी क्यों की सिर्फ आठ साल के बच्ची के साथ २५ से ३० साल तक के मर्द की शादी करवा दी जाती थी. और फिर क्या दर्द...दर्द....दर्द....घर में अगर कुछ भी अशुभ होता तो सारा स्त्री के माथे मार  दिया जाता. सास, ससुर, पति, ननद सब उसीको तकलीफ पोहचाने के लिए तयार थे. अगर शादी होने के बाद पति साल दो साल में गुजर जाये तो उसका जीवन किसी नरक से कम नहीं था. 
         उस ज़माने में विधवा स्त्रियोका जीवन में कोई महत्व था ही नहीं बस वो एक काम करनेवाली मशीन ही थी और कुछ नहीं उसे मारना, पीटना उसके साथ अत्याचार करना गैर नहीं हुआ करता था. उसके बाद सबसे भयानक और जानलेवा प्रथा थी "सती" जाने वाली, इसमें अगर किसी औरत का मर्द गुजर गया तो उस औरत को उसके पति के चिता के साथ दूसरी चिता पे बिठाकर जिन्दा जलाया जाता था जब इस चिता को जलाया जाता तो वो औरत उस चिता पर चिल्लाने की कोशिश करती भागने की कोशिश करती  किसीको दया नहीं आती थी जब वो चिल्लाने लगती तो ढोल नगाडो तथा जोर जोर भजन से उसकी आवाज़ को दबाया जाता जब वो भागने लगती तो ये धर्म के ठेकेदार चिता के चारो तरफ खड़े रहते और बंबू से उसे चिता पे धकेला जाता जैसे किसी पापड़ को भूनते है वैसे ही उस स्त्री को भुना जाता और जलाया जाता जब तक को उसकी सास बंद न हो जाये.
सती प्रथा
         सावित्री माँ ने इन परम्पराओ के खिलाफ आवाज उठाया और पहले तो स्त्री को साक्षर करने की ठान ली उन्होंने भारत का पहला महिलाओ के लिए स्कूल खोला जहा की वो पहली शिक्षिका थी. उन्होंने महिलाओं को पढाना शुरू किया जो इन धर्म के ठेकेदारों को पसंद नहीं आया और छल कपट करने की बहोत कोशिश की. सावित्री माँ ने गरीब, महिला , बच्चे और दलित इन्हें सहारा दिया उन्हें रहने के लिए छत दिया पढाया और काबिल बनाया इसके लिए उन्हें समाज ठेकेदारों के और से कीचड़ के गोलों से मारा गया उन्हें सताया गया लेकिन वो पीछे नहीं हटी और इसी कारन वश उनका नाम आज भी इतिहास के सुनहरे पन्नो में लिखा गया है.